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हमारे एक दोस्त- गंगू सिंह ! एक दिन अचानक मुझे ट्रेन पर सफ़र के दोरान मिल गए . पहले तो में चोंका की यह हमारे गाँव में बावला सा घुमने – फिरने वाला छोकरा हुआ करता था. बड़ी ही कोशिश कर ली पर गंगू महाराज पांचवी क्लास पास होकर नहीं दिए .सब लड़के गंगू को मारते–पीटते रहते थे .क्रिकेट मैं इसे केवल गेंद उठाने के लिए, फिल्ड में दौड़ाने के लिए ही खिलाया जाता था जाता था.बल्ला कभी बेचारे के हाथ में आया ही नहीं. गाँव में आम चुराने के लिए इसे ही पेड़ पर चढाते और हम नीचे से अपनी झोलीमें आम भर कर भाग खड़े होते , किसी शरारत मैं गंगू का नाम पहले लिया जाता . गंगू अपनी बहादुरी दिखाने के चक्कर में सबकी मार खाते रहते थे . हर गलत कामों में गंगू का इस्तेमाल किया जाता था . और जब बिचारे की पिटाई होती थी तो गाँव के सब लड़कों का भरपूर मनोरंजन होता था.
मैं इसके अतीत में झांक रहा था. तभी गंगू ने तपाक से अपना हाथ बढाया – अरे नंदू भइया किधर आज ? बड़े दिनों बाद मुलाकात हुई . जब से बाहर विदेश में नौकरी क्या लगी आपने तो गाँव की तरफ रुख ही नहीं किया और तो और चाचा -चाची को भी अपने पास बुला लिया . एक साँस मे गंगू सब कह गए . मैंने बनावटी हंसी डालते हुआ कहा अरे गंगू जी ,(–‘जी’ इसलिए कहना पड़ा कि ac मैं बैठा है. चिट्टा सफ़ेद कुरता- पायजामा डाले हुआ है . चार -पांच चमचे भी साथ है. पता नहीं क्या हैसियत हो गई होगी इसकी.) मेने बड़े ही अदब के साथ कहा “आपने तो पूरा हुलिया ही बदल डाला” . वह ठहाका मार कर बोला ” नंदू भाई , किसी दिन फुर्सत से मिलो फिर बताएँगे . बड़ी लम्बी कहानी है .” उसने अपने अन्य सभी साथियों से एक-एक करके मेरा परिचय कराया . अपने साथियों का जो परिचय– एक से बढ कर एक– वह देता रहा , उससे अब गंगू के बारे में और ज्यादा जानने की मुझे आवश्यता नहीं रही . थोड़ी ही देर मे मथुरा स्टेशन आ गया और गंगू अपने लाव- लश्कर के साथ उतर गए .हाँ, जाते- जाते मुझसे गर्मजोशी के साथ हाथ मिलाना नहीं भूले . इस बार मेरा हाथ उसने ऐसे कस कर दबाया , कि में उसके जाने के बाद घंटो अपने हाथ को मलता रहा. मुझे ऐसा लगा जैसे उसने मुझसे अपना पुराना हिसाब-किताब चुकता कर लिया हो .
गाड़ी स्टेशन पर १० मिनट के लिए रुकती है . इस दोरान गंगू कि इस मुलाकात का मंथन में कर ही रहा था कि तभी गंगू का एक साथी डिब्बे कि भीढ़ को चीरता हुआ मेरे पास आया और मेरे हाथ में एक कागज थमा कर , बोला अरे, इसे रख लीजिये, अपने विधायक जी का पता है कभी कोई जरुरत समझो तो मिलने आ जाना उनसे . मै अवाक् रह गया . काफी देर बाद मेरी तन्द्रा टूटी – मेरे हाथ में कागज थमा कर वह शख्स जा चूका था. गाढ़ी कभी की स्टेशन छोड़ चुकी थी . में उसे कागज़ के टुकड़े पर लिखे एड्रेस को पड़ता रहा—- सोचा फाढ़ कार फेक दूं या रख लूं —— मुझे लगा की मेरे आत्मसम्मान यानि इगो पर हथोड़े पड़ रहे हों ….नहीं यह सोच अनावश्यक है ….. …… कुछ समझ नहीं पा रहा था…..आखिर में मेने उस कागज़ की तह बनायीं और सम्हाल कर अपने पर्स में एक कोने में रख लिया ……… ….शायद कभी ………………..!
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